
संघर्ष याद कर आज भी जोश से भर जाते हैं
97वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी शालिग्राम यादव को आज भी याद हैं अंग्रेजी हुकूमत की कई यातनाएं
रांची। रांची के 19 स्वतंत्रता सेनानियों में एकमात्र जीवित बचे 97वर्षीय शालिग्राम अग्रवाल आजादी की दास्तां सुनाते-सुनाते और अंग्रेजी हुकूमत में संघर्ष को याद कर आज भी जोश से भर जाते हैं।
आधुनिक चकाचौंध की दुनिया में गुमनाम होते स्वतंत्रता सेनानी में से एक शालिग्राम अग्रवाल के पूरे शरीर पर बढ़ती उम्र के साथ झुर्रियां भी साफ नजर आने लगी है, सुनाई भी कम देने लगा है, बोलने में भी परेशानी होती है, परंतु जब उनसे देश की आजादी में स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष की बात की जाती है, तो उनके चेहरे पर एक अजीब सी चमक आ जाती है।
शालिग्राम अग्रवाल ने विशेष बातचीत में कहा कि 9 अगस्त 1942 को मुंबई में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने करो या मरो का नारा दिया। उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ 18वर्ष थी और रांची के बालकृष्णा स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ते थे। बापू के आह्वान पर वे अपने कुछ दोस्तों के साथ स्कूल के बाहर एकत्रित हुए और जिला स्कूल के गेट के निकट स्थित को-ऑपरेटिव सेंटर की दीवार पर खड़े होकर लोगों से आजादी की लड़ाई में शामिल होने की अपील करने लगे, तभी ब्रिटिश सरकार की पुलिस आयी, उन्हें तथा उनके अन्य दोस्तों को पकड़ कर साथ ले गयी और रांची जेल में डाल दिया गया। दूसरे दिन एक और दल नारेबाजी करते हुए रांची जेल गेट के निकट आया। जिसके बाद उनसभी ने जेल से निकलने की योजना बनायी। सभी ने संतरी से चाबी छीनी और बाहर निकलने का प्रयास किया, इस बीच पुलिस की नजर उनपर पड़ गयी। इसके बाद पुलिस लाठीचार्ज में वे कई अन्य साथियों के साथ घायल हो गये। उस दिन को याद कर आज भी उनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं, वे बताते है कि उनसभी को चार दिनों के लिए सेल में बंद कर दिया गया, जहां कोर्ट ने उन्हें 30-30 बेंत मारने की सजा सुनायी। उस वक्त उनके हाथ-पैर को बेड़ियों से बांध दिया गया। जेल के आदेश पर जेल का तत्कालीन जल्लाद फूलचंद डकैत आया और जेलर के इशारे पर बेंत बरसाने लगा। 15वें बेंत लगने के बाद वे बेहोश हो गये और उसके बाद भी जल्लाद बेंत मारता गया। इसके बाद उनसभी को फुलवारीशरीफ जेल भेज दिया गया। कुछ दिनों तक पटना कैंप जेल और हजारीबाग जेल में भी रखा गया। वे बताते है कि 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जैसे ही स्वतंत्र भारत की घोषणा रेडियो पर हुई, पूरा शहर जश्न से झूम उठा, सभी लोग खुशी से नाच उठे थे। चारों तरफ मंगल गीत की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी।
शालिग्राम अग्रवाल के पुत्र अनुज कुमार अग्रवाल (गढोदिया) को इस बात का गर्व है कि उनके पिता ने आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के पसीने छुड़ा दिए थे। वे बताते हैं कि उनके पिता जी को रांची, हजारीबाग और पटना जेल में रखा गया था। सजा के दौरान उन्हें अंग्रेजी शासन में कई तरह की यातनाओं का सामना करना पड़ा था।
स्वतंत्रा सेनानी शालिग्राम अग्रवाल की पुत्री सुशीला अग्रवाल बताती है कि आजादी की लड़ाई में कूद जाने के कारण उनकी दादी और परिवार के कई सदस्य पिता से खासे नाराज थे और जेल से बाहर निकलने के बाद उन्हें इन सब से दूर रखने के उद्देश्य से शादी कराने का निर्णय लिया गया। लेकिन अपनी शादी के मौके पर भी सामाजिक रूढ़ीवादिता के खिलाफ संघर्ष जारी रखते हुए उन्होंने घूंघट प्रथा का विरोध किया और उनकी जिद पर तमाम सामाजिक परंपरा को तोड़ते हुए बिना घूंघट शादी हुई। इसके बाद भी देश की आजादी के लिए उनका संघर्ष जारी रहा। शादी के बाद वे अपनी पत्नी को भी कई बैठकों में शामिल कराने के लिए साथ ले जाते थे।
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