आदिवासी समाज के लोग भी विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से बाबा भोलेनाथ की करते है पूजा
रांची। पवित्र सावन महीने में भगवान शिव की प्राचीनता की बात करें, तो वेद-साहित्य के ऋग्वेद में भी रूद्र का उल्लेख मिलता है, बाद में ये रूद्र ही भगवान शिव हो गये। वहीं पुरातात्विक अवशेषों की बात करें, तो हमारी प्राचीन सभ्यता सिंधु घाटी और हड़प्पा संस्कृति में भी शिव पूजा के साक्ष्य मिले हैं। झारखंड में भी शिव पूजा हजारों वर्ष पुरानी रही है। राज्य के विभिन्न इलाकों में इसके कई साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य भी मिलते हैं। यह बात भी प्रमाणित होती है कि आदिवासी समाज के लोग भी विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से बाबा भोलेनाथ की पूजा करते आ रहे हैं।
बाबाधाम की कई प्रतिमाएं अति प्राचीन, कई अभिलेख भी मिले
रांची स्थित भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रभारी अधीक्षण पुरातत्व शिव कुमार भगत का कहना है कि झारखंड में देवघर स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम सदियों से शैव मतावलंबियों के धार्मिक आस्था का केंद्र रहा हैं। पुरातात्विक अध्ययन के अनुसार मंदिर की कई प्रतिमाएं सदियों पुरानी है, कुछ प्रतिमाएं पालवंश के काल की है, जबकि वहां से उत्तर गुप्त काल के कुछ अभिलेख भी मिले हैं। जबकि मंदिर की वर्तमान संरचना भी करीब 300 से 400 वर्ष पुरानी हैं।
नागवंशी राजाओं के लिए भी आस्था का केंद्र रहा
अधीक्षण पुरातत्व शिव कुमार भगत का मानना है कि झारखंड के पंचपरगना दक्षिणी छोटानागपुर और पंचपरगना क्षेत्र में भी 600 से 700ईं. से शिव पूजा की गतिविधियां शुरू होने को लेकर कई प्रमाण मिलते हैं। पंच परगना क्षेत्र में अब भी कई प्राचीन शिव मंदिर के अवशेष मिलते हैं, वहीं यह भी साक्ष्य मिलता है कि नागवंशी राजाओं के लिए भी भगवान शिव आस्था के केंद्र रहे हैं। नागवंशी राजाओं के प्रभाव वाले क्षेत्र में कई शिव मंदिर के अवशेष मिलते हैं। इस तरह से कहा जा सकता है कि झारखंड पूर्व मध्यकाल या प्रारंभिक मध्य काल में शैव मतावलंबियों का एक प्रमुख केंद्र रहा हैं।
गौड़ नरेश ने बौद्ध वृक्ष को भी कटवा कर फेंकवा दिया था
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सहायक अधीक्षण पुरातत्वविद नीरज मिश्रा का कहना है कि उत्तर गुप्तकाल के बाद से ही यह क्षेत्र शिव पूजा का प्रमुख केंद्र रहा है। चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के यात्रा वृतांत में भी इसका जिक्र है। यह भी कहा जाता है कि 7वीं सदी में गौड़ नरेश शशांक ने इतने कट्टर शिव भक्त थे कि उन्होंने बौद्ध गया स्थित बौद्ध वृक्ष को कटवा कर फेंकवा दिया था। लेकिन सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र ने इस बौद्ध वृक्ष की जो शाखाएं श्रीलंका ले जाकर लगायी थी, बाद में बौद्ध मतावलंबियों ने श्रीलंका से उसी बौद्ध वृक्ष की शाखाएं पुन वापस लाकर बौद्ध गया में लगवाया।
आदिवासी भी विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से करते है शिव आराधना
सहायक अधीक्षक पुरातत्वविद नीरज मिश्रा का यह भी मानना है कि आदिवासी समाज भी विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से भगवान शिव की ही सदियों से पूजा करते रहे हैं। आदिम जनजाति के लोग पशुपतिनाथ के रूप में या वनवासी समाज के लोग टांगीनाथ अथवा बेनीसागर स्थित प्राचीन मंदिर के माध्यम से शैव भक्त ही रहे है। झारखंड में निवासी करने वाली प्रमुख जनजाति संथाल समाज के लोग भी मरांगबुरु के रूप में पहाड़ की जिस ऊंची चोटी को आकाश, बारिश, बिजली, सूर्य और तेज हवा के देवता के रूप में पूजा करते है, वह प्रत्यक्ष रूप से भगवान शिव का ही प्रतीक हैं। जनजाति समाज के दो प्रमुख आर्थिक क्रियाकलाप है, एक तो पशुपालन और दूसरा वनोत्पाद से अपनी आजीविका चलाना, ऐसी स्थिति में आदिवासी समाज के लोग यह मानते है कि पशुपति के रूप में भगवान शिव ही उनकी रक्षा करते हैं।
शैव संप्रदाय का कभी किसी से टकराव नहीं हुआ
शैव संप्रदाय हमेशा से भव्यता से दूर रही और इसकी पूजा पद्धति इतनी साधारण रही है कि चाहे बौद्ध धर्म का प्रभुत्व रहा हो या फिर पूर्व मध्य काल अथवा प्रचाीन मध्य काल में धर्म-संस्कृति के उत्थान का वक्त रहा, या फिर मुगला अथवा ब्रिटिशकाल रहा, इस धर्म का किसी भी अन्य संस्कृति के साथ कोई क्लेश नहीं हुआ और अब भी शैव धर्म अपनी प्राचीनता को बनाये हुए हैं।
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